बाबा साहेब आम्बेडकर का दलितों के भगवान के रूप में कैसे हुआ उदय?

ऊंच-नीच, जात-पात और छुआछूत जैसी कुरीतियों के दौर में 14 अप्रैल 1891 को डॉ भीमराव आंबेडकर (Dr BR Ambedkar) का जन्म हुआ था।

19वीं सदी में जब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में समाज विभाजित था और छूत-अछूत, धर्म-मजहब के नाम पर लोग बंटे हुए थे तो ऐसे समय में डॉ आंबेडकर ने समाज में एक नई क्रांतिकारी चेतना का बीज बोया।

बाबा साहेब के जीवन में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिनकी वजह से उन्हें हिंदू धर्म से विमुख होना पड़ा, बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया।

छोटी सी उम्र में ही भीमराव सामाजिक भेदभाव को समझ रहे थे। बचपन से ही उन्हें भेदभाव झेलना पड़ा। अपनी बायोग्राफी में उन्होंने अपने जीवन की कई ऐसी घटनाओं के बार में लिखा जिससे उस समय के सामाजिक विभाजन को समझा जा सकता है। डॉ. आम्बेडकर ने अपनी बायोग्राफी में लिखा-

स्कूल में मुझे एक कोने में अकेले बैठना पड़ता था। मैं अपने बराबर के साथियों संग नहीं बैठ सकता था। मैं अपने बैठने के लिए एक बोरा रखता था और उस बोरे को स्कूल की सफाई करने वाला नौकर भी नहीं छूता था, क्योंकि मैं अछूत हूं।

स्कूल में ऊंची जाति के लड़कों को जब प्यास लगती तो वे शिक्षक से पूछकर नल पर जाते और पानी पीकर आ जाते थे। पर मेरी बात अलग थी, मैं नल को छू नहीं सकता था। शिक्षक की इजाजत के बाद भी चपरासी का होना जरूरी था। ताकि मैं मटके को हाथ न लगाऊं। अगर चपरासी नहीं है तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता था।

ये तो उनके बचपन की महज कुछ घटनाएं हुईं। 19वीं सदी में समाज में निम्न जातियों के साथ और भी बुरे बर्ताव हुआ करते थे। अछूतों को तालाबों, कुंओं, मंदिरों, शैक्षणिक संस्थाओं जैसे सार्वजनिक जगहों पर जाने से वंचित कर दिया गया था।

आम्बेडकर मानवता को शर्मसार कर देने वाली परिस्थितियों के बीच दलितों, पिछड़े वर्ग के लोगों और पीड़ितों के मुक्तिदाता और मसीहा बनकर सामने आए।

दलितों और वंचितों की आवाज उठाने के लिए बाबासाहेब ने आंदोलन चलाए। अपने आंदोलन कारगर और व्यापक बनाने के लिए उन्होंने मूक नायक पत्रिका निकाली।

साल 1927 में उनके नेतृत्व में 10,000 से ज्यादा लोगों ने एक विशाल जुलूस निकाला। लोगों ने ऊंची जाति के लिए आरक्षित चोबेदार तालाब के पीने के पानी के लिए सत्याग्रह किया और सफलता हासिल की।

उन्हें वर्ष 1927 में और फिर 1932 में मुंबई विधान परिषद के सदस्य के रूप में नॉमिनेट किया गया। विधान परिषद में उन्होंने दलित समाज के लिए आवाज उठाई।

साल 1929 में उन्होंने समता समाज संघ की स्थापना की और फिर 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश बैन को खत्म करने के ​लिए सत्याग्रह किया।

29 अगस्त, 1947 को डॉ आंबेडकर को संविधान निर्मात्री सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने संविधान में यह प्रावधान रखा कि, किसी भी प्रकार की छुआछूत के कारण समाज में असामान्य उत्पन्न करना दंडनीय अपराध होगा।

आम्बेडकर ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली लागू करवाने में भी सफलता हासिल की।

साल 1950 में वे श्रीलंका के बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने गए और बहुत प्रभावित होकर भारत वापस लौटे। वैचारिक मतभेदों के चलते वर्ष 1951 में कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।

साल 1952 से 1956 तक बाबा साहेब राज्यसभा के सदस्य रहे। कानून बनने के बावजूद दलितों की दयनीय स्थिति देख वे अध्ययन और मंथन में लग गए।

समाज में दलितों, शोषितों की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने लंबा गहन अध्ययन और मंथन किया। निष्कर्ष निकाला कि एकमात्र बौद्ध धर्म ही दलितों को न केवल सबके बराबर ला सकता है, बल्कि अछूत के अभिशाप से भी मुक्ति दिला सकता है।

उन्होंने 1955 में भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना की और 14 अक्तूबर, 1956 में अपने 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर एक नए युग की आधारशिला रखी।

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